Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



148. रथ - मुशल - संग्राम : वैशाली की नगरवधू

सोम ने साम्ब को बुलाकर कहा - “ साम्ब , तू अभी मधुवन जा और महाराज विदूडभ से कह कि चापाल - चैत्य , सप्ताम्र - चैत्य , कपिना - चैत्य में प्रच्छन्न सैन्य को लेकर चारों ओर आग लगाते हुए , सम्पूर्ण दुर्गों और सत्रों को सुरक्षित करते हुए दक्षिण वाम पाश्र्व वैशाली की ओर बढ़े । मार्ग में जो घर, जो खेत , जो जनपद मिलें , नष्ट करते जाएं तथा ज्योंही इधर दक्षिण पाश्र्व से वैशाली- कोट पर आक्रमण होवे, सुरक्षित पचास सहस्र मागध भट और पचास सहस्र अपनी कोसल सैन्य लेकर दुर्धर्ष वेग से वैशाली को रौंद डालें ! उनसे कहना - कल हम वैशाली की उन्मुक्त अभिषेक - पुष्करिणी में एक ही काल में अपने - अपने खड्ग धोएंगे। जा , सूचना देकर सूर्यास्त से पूर्व ही तू आकर, मैं जहां जिस दशा में होऊं , सन्देश दे। ”

साम्ब गम्भीर - मूर्ति हो चला गया । सोम ने अब अपना प्रच्छन्न महास्त्र रथ -मुशल उद्घाटित किया । अस्त्र का बारीकी से निरीक्षण किया । उसकी यन्त्रकला को यथावस्थित किया। तदनन्तर सामने हाथी, पक्ष -स्थान में अश्व , उरस्य में और रथ -कक्ष में तथा पदाति प्रतिग्रह करके अप्रतिहत व्यूह की रचना की । इस व्यूह में बारह सहस्र हाथी, साठ सहस्र अश्वारोही , आठ सहस्र रथी और ढाई लाख पदातिकों ने योग दिया । रथ -मुशल महास्त्र को व्यूह के उरस्य में स्थापित - गोपित कर सोमप्रभ ने सम्पूर्ण सेना की गति की ओर जो जहां है , वहीं चार मुहूर्त विश्राम करने का आदेश दिया ।

इसके बाद पाटलिग्राम तीर्थ पर आकर उन्होंने तीर्थ का निरीक्षण किया । पादिकों , सेनापतियों और नायकों को पृथक्- पृथक् आदेश दिए । संकेत - शब्दों, पताका -संकेतों द्वारा व्यूह में अवस्थित सेना को अवसर पड़ने पर विभक्त करने , बिखरी सेना को एकत्र करने , चलती सेना को रोकने, खड़ी सेना को चलाने, आक्रमण करती सेना को लौटाने में , यथावसर आक्रमण करने में , जिन -जिन संकेत प्रकारों की आवश्यकता समझी , सबको सुव्याख्यात किया । इसके अनन्तर कुछ आवश्यक लेख लिखकर उन्होंने आर्य भद्रिक के पास भेज दिए और फिर विश्राम किया ।

तीन दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर सोम ने वैशाली- अभियान किया । संकेत पाकर कोसलराज विदूडभ ने दूसरी ओर से चन्द्रकार सैन्य बिखेरकर वैशाली को घेर लिया । प्रभात होने से प्रथम ही घनघोर युद्ध होने लगा । इस मोर्चे पर काप्यक गान्धार और उनके भटों ने विकट पराक्रम प्रकट किया । परन्तु सोमप्रभ लिच्छवि और गान्धारों का व्यूह तोड़ गंगा- पार उतर आए। उन्होंने रथ -मुशल महास्त्र से अपना संहार - कार्य प्रारम्भ कर दिया । यह एक लोह- निर्मित विराटकाय, बिना योद्धा और बिना सारथी का रथ था । इस पर किसी भी शस्त्र का कोई प्रभाव नहीं होता था । यह रथ लिच्छवि - सैन्य में घुसकर रथ -हाथी अश्व - पदाति , घर -हर्म्य सभी का महाविध्वंस करने लगा । जो कोई इस लौह - यन्त्र की चपेट में आ जाता , उसी की चटनी हो जाती। भारतीय युद्ध में सर्वप्रथम इस महास्त्र का प्रयोग किया गया था , जिसकानिर्माण आचार्य काश्यप ने अपनी अद्भुत प्रतिभा से किया था । इसका रहस्य अतिगोपनीय था । मरे हुए हाथियों , घोड़ों और सैनिकों के अम्बार लग गए । ढहे हुए घरों की धूल -गर्द से आकाश पट गया । यह लौहयन्त्र केले के पत्ते की भांति घरों, प्राचीरों की भित्तियों को चीरता हुआ पार निकल जाता था । इस महाविध्वंसक-विनाशक महास्त्र के भय से प्रकम्पित -विमूढ़ लिच्छवि भट सेनापति सब कोई निरुपाय रह गए । शत सहस्र भट भी मिलकर इस निर्द्वन्द्व महास्त्र की गति नहीं रोक सके। इस लौहास्त्र का सम्बल प्राप्त कर अजेय मागधी सेना विशाल लिच्छवि सैन्य को चीरती हुई चली गई । अब उसकी मार वैशाली की प्राचीरों पर होने लगी । सहस्रों भट धनुषों पर अग्निबाण चढ़ाकर नगर पर फेंकने लगे । महास्त्र ने झील , तालाब और नदी के बांधों को तोड़ डाला , सारे ही नगर में जलप्रलय मच गई । आग और जल के बीच वैशाली महाजनपद ध्वंस होने लगा। लिच्छवि भट प्राणों का मोह छोड़ युद्ध करते - करते कट - कटकर मरने लगे। सोमप्रभ निर्दय , निर्भय दैत्य की भांति महा नरसंहार करता हआ आगे बढ़ने लगा। मागध- सैन्य ने अब बहत मात्रा में योगाग्नि और योगधूम का प्रयोग किया । औपनिषद् पराघात प्रयोग भी होने लगे। मदनयोग , दूषीविषी, अन्धाहक के आक्षेप से शत्रु के सहस्रों हाथी , घोड़े और सैनिक उन्मत्त , बधिर और अन्धे हो गए।

चार दण्ड दिन रहते सोमप्रभ वैशाली के कोट - द्वार पर जा टकराए। इसी समय कोसलराज विदूडभ भी अपनी सुरक्षित चमू लेकर वैशाली की परिधि पारकर वैशाली के अन्तःकोट पर आ धमके। उनके सहस्रों भट सीढ़ियां और कमन्द लगाकर प्राचीरों, दुर्गों और कंगूरों पर चढ़ गए ।

वैशाली का पतन सन्निकट देख , महासेनापति सुमन ने स्त्रियों, बालकों तथा राजपुत्रों को सुरक्षित ठौर पर भेज दिया । इस समय सम्पूर्ण वैशाली धांय - धांय जल रही थी और उसके कोट - द्वार के विशाल फाटकों पर निरन्तर प्रहार हो रहे थे, सेनापति सोमप्रभ हाथ में ऊंचा खड्ग लिए मागध जनों के उत्साह की वृद्धि कर रहे थे। शत्रु-मित्र सभी को यह दीख गया था कि वैशाली का अब किसी भी क्षण पतन सुनिश्चित है ।

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